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जलवायु परिवर्तन

कृषि-जलवायु परिस्थितियों में जुताई की आवश्यकताएं (Tillage requirement in agro-climatic conditions in Hindi)

कृषि-जलवायु परिस्थितियों में जुताई की आवश्यकताएं (Tillage requirement in agro-climatic conditions in Hindi)

किसान कैसे विभिन्न जलवायु परिस्थितियों में अपने खेत की जुताई करते हैं और अपने खेतों को उत्पादन के लिए विकसित करते हैं। 

विभिन्न प्रकार के प्रश्नों के उत्तर और उनसे जोड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां को जानने के लिए हमारी इस पोस्ट के अंत तक जरूर बने रहें:

विभिन्न जलवायु परिस्थितियों में खेत की जुताई

कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन होती हैं तो इन परिवर्तन के कारण पैदावार या उपज में लगभग 15 से 18% की कमी आ जाती है। 

वहीं दूसरी ओर गैर-सिंचित क्षेत्रों में तकरीबन 20 से 25% की कमी हो जाती है। इस जलवायु परिवर्तन के कारण वार्षिक कृषि कमाई 15 से 18% ही हो पाती है।

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कृषि जलवायु क्षेत्र

कृषि जलवायु क्षेत्र (Agro Climatic Zones) के लिए एक भूमि की इकाई आवश्यक होती है जिसके चलते फसलों की किस्मों को जोतने में आसानी हो। 

इनका मुख्य उद्देश प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण की हो रही विभिन्न प्रकार की स्थितियों के चलते बिना किसी दुष्प्रभाव के भोजन चारा लकड़ी, फाइबर आदि के जरिए मिलने वाले ईंधन को सुरक्षित रखना है। 

इन कृषि जलवायवी योजना का मुख्य उद्देश मानव तथा प्राकृतिक द्वारा निर्मित साधनों का अधिक से अधिक वैज्ञानिक रूप से अपने कार्यों के लिए उपयोग करना होता है।

कृषि जलवायु क्षेत्रों की योजना

कृषि जलवायु क्षेत्र की योजना के अंतर्गत कृषि जलवायवी योजना का मुख्य लक्ष्य होता है कि वह ज्यादा से ज्यादा मानव निर्मित तथा प्रकृति द्वारा निर्मित दोनों ही साधनों का प्रयोग अधिक से अधिक कर सके। 

कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्र जलवायु मुख्य रूप से फसल की उपज, वर्षा, मिट्टी के विभिन्न प्रकार तथा पानी की आवश्यकता, वनस्पतियों के विभिन्न प्रकार आदि के नेतृत्व को प्रभावित करने वाले कारणों को पूर्ण रूप से जाना होता है।

जलवायु परिवर्तन तथा इसके प्रभाव

जलवायु परिवर्तन के कारण विभिन्न विभिन्न प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं जैसे कुछ देशों में हिमालय से लेकर दक्षिण एशिया के तटीय देशों में इस तरह की भयानक ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने के लिए हर समय खुद को सक्षम रखते हैं। 

तथा इस ग्लोबल वॉर्मिंग का हमेशा निडरता के साथ सामना करते हैं। प्राप्त की गई जानकारियों के अनुसार इन देशों में से दक्षिण एशिया अपनी 21वीं शताब्दी में 2 से लेकर 6 डिग्री सेल्सियस की अधिक गर्मी से भरपूर तापमान को झेल सकता है।

रविंद्रनाथ द्वारा दी गई सन 2007 में जानकारी के अनुसार कार्बन डाई का स्तर काफी उच्च स्तर पर था, या लगभग 410 के आसपास  पीपीएम तक पहुंच चुका था। इसे ग्लोबल वॉर्मिंग का मुख्य कारण माना जाता है। 

कुछ अन्य ऐसे भी क्षेत्र है जो इस ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते सूखा झेल रहे हैं : यह क्षेत्र कुछ इस प्रकार है जैसे: हरियाणा कर्नाटक पश्चिम राजस्थान मध्य प्रदेश आंध्र प्रदेश दक्षिणी गुजरात दक्षिणी बिहार आदि सुखा प्रवण राज्य अनपेक्षित सूखे का सामना कर रहे हैं।

कृषि-जलवायु

कृषि जलवायु के अंतर्गत इसका वार्षिक तापमान लगभग 8 °c सेल्सियस होता है। जलवायु मृदु ग्रीष्म तथा बहुत कड़ी शीत वाला होती है। इन क्षेत्रों में औसत वार्षिक वर्षा सिर्फ 150 मी. मी. की दर पर बहुत कम होती है। 

क्षेत्रों में क्राईक मुद्राएं वह शुष्क मृदा नियंत्रण रूप से पाई जाती है। इस स्थिति में फसल का वृद्धि काल सिर्फ 90 दिनों से ज्यादा दिनों तक विकसित नहीं होता।

कृषि भूमि प्रयोग पारिस्थितिकी

इन कृषि क्षेत्रों में काफी कम वन पाए जाते हैं। इन भूमि प्रति इकाई उत्पादन बहुत कम होता है। सब्जियों में अग्रवर्ती फसलें तथा वनस्पतियां ज्वार, बाजरा, गेहूं, चारा दालें आदि की फसलें उगाई जाती हैं। 

फसलों के बीच में हल्की हल्की घास भी उगाई जाती हैं इन क्षेत्रों में फलों के रूप में सेब तथा खुबानी की खेती होती है। खेतों की जुताई के लिए भेड़, बकरी, याक खच्चर आदि पशुओं का इस्तेमाल किया जाता है।

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कृषि-जलवायु परिस्थितियों में जुताई की आवश्यकताएं

कृषि जलवायु परिस्थितियों में जुताई करते समय विभिन्न प्रकार की आवश्यकता की जरूरत होती है। भूमि को गहराई से कुछ इंचों की दूरी पर अच्छे से खोदना चाहिए। मिट्टी को हल के जरिए पलट पलट कर खुरदरा करना चाहिए। 

ऐसा करने से नीचे की मिट्टी ऊपर आ जाती है। यह मिट्टियां उष्मा आदि के प्राकृतिक क्रिया द्वारा प्रभावित होकर अपना भुरभुरा रूप ले लेती हैं। 

कृषि कार्य भूमि को वर्षा, सूर्य, वायु पाला, प्रकाश के संपर्क में उगाते हैं। कृषि इन स्थितियों में अपने खेतों की जुताई करते हैं।

  • कृषि नई भूमि की जुताई करने से पूर्व विभिन्न प्रकार की सावधानियां बरतें हैं जैसे, की नई भूमि को जोतते समय पहले पेड़, पौधों को अच्छी तरह भूमि से काट लेते हैं। पूरी तरह भूमि को स्वच्छ कर लेते हैं उसके बाद किसी भारी यंत्र द्वारा अपने खेत की जुताई करते हैं। जुताई यंत्र द्वारा मिट्टी कटती है और फिर उन मिट्टी को ऊपर नीचे पलटा भी जाता है। इस तरह से कई बार खेतों की जुताई करते हैं और जब भूमि अपना गहराई का रूप ले लेती है तब मिट्टी फसल उगाने के लायक बन जाती है।
  • इन खेतों की गहराई कम से कम 1 फुट होती है। इस नीचे वाली भूमि को गर्भतल के नाम से भी बुलाया जाता है। गर्भतल कभी-कभी अनुपजाऊ भी रह जाते हैं इस स्थिति में गहरी जुताई करने के बाद मिट्टी को उपजाऊ बनाना जरूरी होता है। गर्भतल की गहराई निश्चित आकार के रूप में ना की जाए, तो या अपना कठोर रुप ले लेती हैं। इसकी ऊपरी सतह बहुत ही ज्यादा कठोर बन जाती है। इस कठोर सतह को अंग्रेजी भाषा में प्लाऊ पैन के नाम से भी जाना जाता है। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार यह कठोर तह बहुत ही हानिकारक होती है। सिंचाई व वर्षा जब होती है तो खेत में जल ज्यादा होते हैं और यह कठोर तह तक नहीं पहुंच पाते है।

मिट्टियों में काफी टाइम तक पानी भरा रहता है और इस वजह से विभिन्न प्रकार के कुछ हानिकारक कारण भी उत्पन्न हो जाते हैं खेतों में।

  • सर्वप्रथम बीज बोने से पहले मिट्टी को किसी भी मिट्टी पलटने वाले यंत्र से उलट पलट देना चाहिए। मिट्टी पलटने के लिए भारी उपकरण का इस्तेमाल करें। हल के जरिए मिट्टी को अच्छी तरह से भुरभुरा कर देना चाहिए। खेत की आखिरी जुताई बहुत ही ध्यान से करनी चाहिए। मिट्टियों में मौजूद आर्द्रता का संरक्षण इस आखिरी बुवाई पर पूर्ण रूप से निर्भर होता हैं। यदि आर्द्रता अच्छे प्रकार से होती है तो बीज सफलतापूर्ण जम जाते हैं। केशिका नलियों के जरिए यह ऊपर की तह तक भली प्रकार से पहुंच जाते हैं।
  • हल की मुठिया को खूब अच्छी तरह से पकड़ना चाहिए। ताकि जुताई करते टाइम हल का संपर्क सीधा गहराई से हो। खेतों की जुताई जलवायु के अनुसार खरीफ, रबी, जायद मौसम में विभाजित करनी चाहिए। इन्हीं के अनुसार फसलों की जुताई करनी चाहिए।

हम उम्मीद करते हैं कि आपको हमारी इस आर्टिकल के जरिए, विभिन्न कृषि-जलवायु परिस्थितियों में जुताई की आवश्यकताएं तथा अन्य जानकारी पूर्ण रूप से प्राप्त हुई होंगी। 

यदि आप हमारी दी हुई जानकारियों से आग्रह करते हैं तो हमारी इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा आगे सोशल मीडिया और दोस्तों के साथ शेयर करे। धन्यवाद।

बागवानी किसानों के लिए समस्या बनती जलवायु परिवर्तन, कैसे बचाएं अपनी उपज

बागवानी किसानों के लिए समस्या बनती जलवायु परिवर्तन, कैसे बचाएं अपनी उपज

औद्योगिक क्रांति के बाद से पूरे विश्व भर में ग्लोबलवार्मिंग(Global warming) और जलवायु परिवर्तन(Climate change) केवल मानव जाति के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र(Ecosystem) के लिए एक समस्या बनकर उभरा है। एक समय जिस स्थान पर अच्छी बारिश होती थी आज वहां हर वर्ष सूखा पड़ रहा है, इसका मुख्य कारण जलवायु में परिवर्तन ही है। जलवायु परिवर्तन से पृथ्वी पर रहने वाले हर प्रजाति को कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नुकसान उठाना पड़ता है, इसी नुकसान की वजह से पिछले कुछ वर्षों से फलों के लिए बागवानी खेती करने वाले किसान भाइयों को उपज में काफी कमी देखने को मिली है। उत्तरी भारत के राज्यों में फल उगाने वाले किसान अब नई वैज्ञानिक तकनीकों की मदद से कुछ उपाय खोजने की कोशिश कर रहे हैं। कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार साल 2021-22 में भारत में लगभग 7 मिलियनहेक्टरक्षेत्र में फल उगाए जाते हैं और प्रतिवर्ष लगभग 93 मिलियनटन फल प्राप्त होते हैं।भारतीय बागवानी कृषि विश्व भर के उत्पाद में लगभग 10% हिस्सेदारी निभाती है। आम, केला और अमरूद तथा अनार, अंगूर और पपीता जैसे प्रमुख फसलों के उत्पादन में भारत विश्व के शीर्ष देशों में शामिल है।

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जलवायु परिवर्तन से फलदार पौधों को होने वाले नुकसान :

वैश्विक तापमान में परिवर्तन और बारिश के पैटर्न में हुए बदलाव की वजह से फलदार पौधों में निम्न नुकसानदायक प्रभाव देखने को मिले हैं :

  • तापमान में वृद्धि होने के कारण किसी भी पौधे पर लगने वाले फलों की परिपक्वता का समय कम हो जाता है। इसकी वजह से वह जल्दी तैयार हो जाते हैं और इन्हें बाजार में जल्दी बेचना पड़ता है, इससे फलों के भंडारण की संभावना कम हो जाती है और उन्हें तुरंत भेजना पड़ता है। इस वजह से किसानों को सही दाम नहीं मिल पाते और उनका मुनाफा कम हो जाता है।
  • इसके अलावा किसी स्थान पर अधिक वर्षा या सूखा पड़ने पर फसल की उत्पादकता पूरी तरीके से कम होने के साथ ही वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि होने से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ा है, जिस कारण फसल की गुणवत्ता पर काफी बुरा प्रभाव देखने को मिला है।
  • अधिक कार्बन-डाइऑक्साइड की वजह से फलों में स्टार्च और ग्लूकोज की मात्रा ज्यादा देखने को मिल रही है, जिससे इन फलों के सेवन से रक्तचाप और शुगर जैसी बीमारियां होने का खतरा बढ़ रहा है।
  • अधिक ग्लूकोज संचित करने वजह से इन फलों को पानी की अधिक आवश्यकता होती है।
  • इसके अलावा विश्वत रेखा (Equatorial area) के आसपास वाले क्षेत्रों में आसमान में अधिक समय तक बादल छाए रहने की वजह से वहां पर उगाए जाने वाले आम और अमरूद के फलों में एस्कोरबिक अम्ल (Ascorbic acid) की मात्रा घट जाती है, जिस वजह से फल में पाई जाने वाली मिठास कम हो जाती है और फुल पूरी तरह से फीका लगता है। इस कारण उसकी बाजारू मांग में भी कमी देखने को मिलती है।
  • बदली हुई जलवायु परिस्थितियां नए प्रकार के रोगों को जन्म दे रही है, तापमान में बढ़ोतरी होने से कई सूक्ष्म जीव और बैक्टीरिया पौधों की जड़ों और तने को नुकसान पहुंचाते हैं, इसके अलावा इन बैक्टीरिया की वर्द्धि दर भी तेज हो जाती है, जो बाद में सीधे फलों को ही खाने लगते हैं। इन रोगों की रोकथाम के लिए किसानों को रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ता है, जो लागत को बढ़ाकर आर्थिक दबाव पैदा करते हैं।

ऊपर बताए गए नुकसान को ध्यान में रखते हुए अब कृषि वैज्ञानिक इनके निदान के लिए प्रयास कर रहे हैं।

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फलदार पौधों को जलवायु परिवर्तन से बचाने के कुछ उपाय :

हालांकि किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को पूरी तरीके से खत्म तो नहीं किया जा सकता, लेकिन वैज्ञानिक विधियों की मदद से इसे कम भले ही किया जा सकता है।

  • गर्मी के मौसम में पेड़ों की कटाई-छंटाई कम करनी चाहिए और पेड़ के तने और उसकी मोटी शाखाओं को सफेद रंग से पुताई कर देने पर सूरज से आने वाली किरण का प्रभाव कम पड़ता है, जिससे फल के पकने में लगने वाला समय अधिक हो जाता है और किसान को अच्छी उपज के साथ ही अच्छा मुनाफा हो पाता है।
  • अधिक गर्मी पड़ने से बाग के क्षेत्र में नमी की मात्रा कम हो जाती है। नमी को बरकरार बनाए रखने के लिए समय-समय पर क्षेत्र की नमी की जांच करनी चाहिए और बाग की नियमित और उचित सीमित मात्रा में सिंचाई करनी चाहिए।
  • यदि आप के बाग में पिछले सीजन के कुछ पौधे बचे हुए हैं और उनसे फल प्राप्त नहीं हो रहे हैं, तो उन्हें काटकर उनकी पलवार बना देनी चाहिए, जिससे बाग के क्षेत्र के तापमान को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है।
  • रासायनिक उर्वरकों की तुलना में जैविक खाद का इस्तेमाल करने से पौधों में नमी बनी रहती है और उन्हें पानी की कम आवश्यकता होती है। इससे रासायनिक उर्वरक खरीदने का खर्चा भी बच जाता है।
  • अधिक ठंड पड़ने वाले क्षेत्रों में तापमान को नियंत्रित करने के लिए पतझड़ के समय पौधों के नीचे गिरी हुई सूखी टहनियों और पत्तियों को इकट्ठा कर जलाने से भी फायदा हो सकता है।
  • इसके अलावा पत्तियों को जलाने से होने वाले धुआं की वजह से कई प्रकार के छोटे कीट और फल मक्खी पौधों से दूर भाग जाते हैं, इससे आपकी फलों की निरन्तर सुरक्षा भी हो पाती है।
  • फलों की छोटी पौध को हमेशा पश्चिम और उत्तर दिशा की तरफ मुंह करते हुए लगाना चाहिए, इससे सूरज की किरणों का कम प्रभाव पड़ता है।

पिछले 3 वर्षों से उत्तरप्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र के क्षेत्रों में उगने वाले 'अल्फांसोआम' की उपज में काफी गिरावट देखने को मिली है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश में उगने वाले 'अवधपुरीकेला' तथा उत्तर प्रदेश में उगने वाले 'इलाहाबादसफेदाअमरूद' और जम्मू एवं कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश के क्षेत्र में लगने वाले 'लाला अम्बरी सेब' की गुणवत्ता में कमी आने के साथ ही इनके स्वाद में पायी जाने वाली मिठास भी कम होती जा रही है। 

आशा करते हैं कि Merikheti.com के द्वारा बागवानी फलों का उत्पादन करने वाले किसान भाइयों को जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभाव और उनसे बचने के उपायों के बारे में जानकारी मिल गई होगी। यदि आप भी बागवानी फलों की खेती करते हैं तो कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा सुझाए गए और ऊपर बताई गई जानकारी का फायदा उठाकर अपने बाग की उपज को वापस पहले की स्तर पर ले जाकर अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे।

सही जानकारी मिले तो छोटे जोत वाले किसान जलवायु परिवर्तन के नुकसान से निबट सकते है: बिल गेट्स

सही जानकारी मिले तो छोटे जोत वाले किसान जलवायु परिवर्तन के नुकसान से निबट सकते है: बिल गेट्स

बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन के सह अध्यक्ष बिल गेट्स ने कृषि सांख्यिकी के 8 वें अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में कहा कि आज के समय में जब हमें उत्पादन और भोजन की उपलब्धता बढ़ाने की आवश्यकता है, जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का सामना करने के लिए सांख्यिकीविद जो काम करते हैं, वह बहुत महत्वपूर्ण है। यह समझना कि जलवायु परिवर्तन फसलों को कैसे प्रभावित कर रहा है, और हम उत्पापदन के लिए इन परिवर्तनों को कैसे अपना सकते हैं और अनुकूल बना सकते हैं, इसके लिए नए डिजिटल उपकरणों के उपयोग सहित सर्वोत्तम आंकड़ों की आवश्यकता है। यहां हर कोई, बदलती जलवायु के अनुकूल और निश्चित रूप से दुनिया के सबसे गरीब किसानों को सभी उपलब्ध जानकारी उपलब्धा कराने के मानवीय प्रयासों का हिस्सा है।

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 श्री गेट्स ने कहा "जलवायु परिवर्तन जटिल है और विभिन्न जलवायु परिस्थितियों के अनुरूप नए बीज विकसित करने सहित विभिन्न हस्तक्षेपों को सीखने की आवश्यकता और इन्हें सबसे गरीब किसानों को उपलब्ध कराने की व्यवस्था होनी चाहिए। श्री गेट्स ने कहा कि पूरी दुनिया की 7 अरब आबादी में से छोटे किसानों की संख्या  दो अरब से ज्यादा है। यह एक विशाल समूह है जिसे मदद की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन प्रभावों के कारण छोटे जोत वाले किसानों का कृषि उत्पादन कम होता जा रहा है जिससे विशेष रूप से सूखा और बाढ़ जैसी अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तनों के कारण वे अपनी बचत की गई जमा पूंजी से हाथ धो बैठते हैं। उन्होंने कहा कि इस सबके बीच अच्छी खबर यह है कि इन चुनौतियों से निबटने के लिए बहुत सारे नवाचार उपलब्धह हैं। आज जलवायु परिवर्तन की समस्यात से निपटने के लिए ‘ नए किस्मस के बीजों और विशेष रूप से उपलब्ध बीजों को विकसित करने में निवेश को दोगुना करने की आवश्यकता है। सूखे वाले क्षेत्रों के लिए बीज विकसित करने में भारत में इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टीउट्यूट फॉर द सेमी ऐरिड ट्रापिक्स  (आईसीआरआईएसएटी) तथा सीजीआईआर केन्द्रों  के उदाहरणों का हवाला देते हुए श्री गेट्स ने कहा कि इस तरह के और भी काम किए जाने की जरुरत है और यह सुनिश्चकत किया जाना चाहिए कि इसका लाभ किसानों, विशेषकर छोटे किसानों तक पहुंचे। बिल गेट्स ने यह भी कहा कि डेटा क्रांति न केवल किसानों के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए आंकड़े कैसे इकट्ठा किए जाएं यह तय करती है। कई मामलों में नई तकनीकें पहले से ही उत्पादकता का अनुमान लगा लेती हैं। किसानों को अहम जानकारियां उपलब्ध नहीं हो पातीं। उन्होंने सांख्यिकीविदों और वैज्ञानिकों पर भरोसा जताते हुए कहा कि इनमें से हर कोई नवोन्मेषक बन सकता है और कृषि नीतियों को बेहतर बनाने में मदद कर सकता है। उन्होंने उम्मीद जताई कि यह सम्मेलन किसानों और आने वाली पीढ़ियों के लिए कई लाभकारी उपाय सुझा सकता है।

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केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने समारोह की अध्यक्षता करते हुए कहा कि भारत के लिए अकादमिक महत्वत वाले इस सम्मेलन की मेजबानी करने का यह एक अनूठा और महत्वपूर्ण अवसर है। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि यह सम्मेलन विदेशी प्रतिनिधियों के लिए देश की समृद्ध सांख्यिकीय परंपरा, समृद्ध संस्कृति और विविधता के बारे में जानने और सीखने का अवसर होगा। उन्होंने कहा कि साथ ही यह भारतीय पेशेवरों को वैश्विक विशेषज्ञों के साथ विचार साझा करने और इस क्रम में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक विकास प्रक्रिया का हिस्सा बनने के लिए एक मंच प्रदान करेगा। उन्होंने भारत सरकार की विभिन्न कृषि केंद्रित योजनाओं को साकार करने में कृषि सांख्यिकी के महत्व पर जोर दिया। देश में सांख्यिकी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और इसके विकास का विस्तार से जिक्र करते हुए केन्द्रींय मंत्री ने कहा कि यह सम्मेलन एक बेहतरीन अनुभव होगा और उम्मीद है कि फलदायक चर्चाएं अंततः कुछ नीतिगत सुझावों को सामने लाएंगी।

केन्या के किसानों ने कृषि समस्याओं का समाधान निकाला, भारत को भी सीखना चाहिए

केन्या के किसानों ने कृषि समस्याओं का समाधान निकाला, भारत को भी सीखना चाहिए

केन्या के किसानों द्वारा फसल चक्र अपनाकर देसी किस्मों की फसलों की और रुख किया है। देसी किस्मों से पैदावार वृद्धि हेतु केन्या की जलवायु, पक्षी एवं मित्र कीट भी अपनी सहायक भूमिका निभायेंगे। आज पूरा विश्व कृषि क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के संकटों से झूझ रहा है, जैसे कि अप्रत्याशित अत्यधिक बारिश, कीट व फसल रोग संक्रमण और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से पैदावार बहुत प्रभावित होती है। भारत का भी यही हाल है, परंतु आपको बतादें कि केन्या के किसानों द्वारा प्राकृतिक आपदाओं से निपटने हेतु देसी एवं स्थानीय फसलों की खेती का चयन किया है। संयुक्त राष्ट्र (UN) व विश्व बैंक द्वारा विभिन्न रिपोर्ट्स में जलवायु परिवर्तन की वजह से खाद्य परेशानियों में बढ़ोत्तरी एवं उत्पादन में घटोत्तरी की समस्या के बारे में बताया है। परंतु केन्या के कृषकों ने जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचने हेतु कंदों की खेती, देसी फसल और पत्तेदार सब्जियों की खेती की ओर रुख किया है। केन्या के लघु व सीमान्त कृषकों को इस परिवर्तन से बेहतर परिणाम प्राप्त हो रहा है।


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भारतीय किसानों द्वारा भी अब देसी किस्मों की खेती की तरफ कदम बढ़ाया जा रहा है। देशी किस्मों पर किसी आपदा का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता ना ही सूखे की चिंता ना ही कीट व रोगों का डर। जलवायु परिवर्तन व समय की मांग के अनुसार देसी किस्मों की फसल का चयन ही अच्छा विकल्प है। साथ ही, उगाये गए बीज को बेचने की अपेक्षा बचाकर के ही पुनः बुवाई करके बीज के व्यय से भी बचा जा सकता है। क्योंकि हाइब्रिड बीज का केवल एक ही बार उपयोग होता है और अत्यंत महँगे भी होते हैं। इन्ही सब वजहों से केन्या की विभिन्न एनजीओ ने देसी किस्मों के बीजों का चयन के साथ साथ भण्डारण व प्रबंधन भी करने लगे हैं।

कौन से किसान देसी किस्म की खेती करते हैं

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार केन्या में अब छोटे किसानों ने खेती हेतु 80% तक देसी बीजों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, दरअसल कई किसानों को बीजों की उपलब्धता एवं उन्हें पुनः एकत्रित करने हेतु काफी समस्या का सामना करना पड़ता है। यूनेस्को द्वारा देसी खाद्य पदार्थों को सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी है, जो कि केन्याई कृषकों की सराहनीय पहल की वजह से प्राप्त हुई। केन्या के किसानों की इन्ही सकारात्मक पहल व कोशिशों की वजह से सरकार भी सहयोग करने के लिए तैयार हो गयी है। देसी किस्मों की फसल से देश की खाद्य आपूर्ति की समस्या दूर होने के साथ ही इन किस्मों का प्रयोग भी काफी हद तक बढ़ेगा।


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भारत को भी देसी किस्मों की खेती की ओर ध्यान देना चाहिए

वर्तमान में भारत एक बड़े खाद्य आपूर्तिकर्ता के रूप में अहम भूमिका निभा रहा है। सरकार द्वारा भारत में फिलहाल जैविक कृषि एवं प्राकृतिक खेती हेतु प्रोत्साहन दिया जा रहा है, परंतु देसी किस्मों के स्थान पर अब हाइब्रिड किस्मों का प्रयोग हो रहा है। हालाँकि भारत में ऐसी संस्थाएं एवं किसान आज भी है, जो वैज्ञानिक कृषि के अतिरिक्त देसी किस्मों को संजोये हुए हैं। वर्तमान में भी अधिकाँश गांवों में देसी किस्मों के जरिये कृषि होती है, एवं बीजों को आगामी फसलों हेतु बचा कर रखा जाता है। दरअसल, देसी बीज बैंकों की आज भी कमी है अधिकाँश देसी किस्में बिल्कुल गायब हो चुकी हैं, लेकिन कुछ किस्में बैंक में सुरक्षित रखी हैं। मौसमिक बदलाव से भारत के किसान भी काफी प्रभावित हैं।
पूसा परिसर में बिल गेट्स ने किया दौरा, खेती किसानी के प्रति व्यक्त की अपनी रुची

पूसा परिसर में बिल गेट्स ने किया दौरा, खेती किसानी के प्रति व्यक्त की अपनी रुची

गेट्स फाउंडेशन के चेयरमैन ब‍िल गेट्स (Bill Gates) द्वारा पूसा कैंपस में गेहूं एवं चने की उन प्रजातियों की फसलों के विषयों में जाना जो जलवायु पर‍िवर्तन की जटिलताओं का सामना करने में समर्थ हैं। विश्व के अरबपति बिल गेट्स (Bill Gates) द्वारा भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) का भृमण करते हुए, यहां के पूसा परिसर में तकरीबन डेढ़ घंटे का समय व्यतीत किया एवं खेती व जलवायु बदलाव के विषय में लोगों से विचार-विमर्श किया।

बिल गेट्स ने कृषि क्षेत्र में अपनी रुची जाहिर की

आईएआरआई के निदेशक ए.के. सिंह द्वारा मीडिया को कहा गया है, कि बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के सह-अध्यक्ष एवं ट्रस्टी बिल गेट्स (Bill Gates) द्वारा आईएआरआई के कृषि-अनुसंधान कार्यक्रमों, प्रमुख रूप से जलवायु अनुकूलित कृषि एवं संरक्षण कृषि में गहन रुचि व्यक्त की।

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इसी मध्य गेट्स (Bill Gates) द्वारा आईएआरआई की जलवायु में बदलाव सुविधा एवं कार्बन डाइऑक्साइड के उच्च पैमाने के सहित खेतों में उत्पादित की जाने वाली फसलों के विषय में जानकारी अर्जित की है। बिल गेट्स ने मक्का-गेहूं फसल प्रणाली के अंतर्गत सुरक्षित कृषि पर एक कार्यक्रम में भी मौजूदगी दर्ज की। गेट्स ने संरक्षण कृषि के प्रति अपनी विशेष रुचि व्यक्त की। उसकी यह वजह है, कि गेट्स का एक लक्ष्य विश्व स्तर पर कुपोषण की परेशानी का निराकरण करना है। इसलिए ही वह स्थायी कृषि उपकरण विकसित करने के लिए निवेश कर रहे हैं। बिल गेट्स द्वारा खेतों में कीड़ों एवं बीमारियों की निगरानी हेतु आईएआरआई द्वारा विकसित ड्रोन तकनीक समेत सूखे में उत्पादित होने वाले छोले पर हो रहे एक कार्यक्रम को ध्यानपूर्वक देखा।

बिल गेट्स (Bill Gates) ने दौरा करने के बाद क्या कहा

संस्थान के निदेशक डॉ. अशोक कुमार स‍िंह द्वारा गेट्स के दौरा को कृषि अध्ययन एवं जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में कारगर कदम बताया है। गेट्स का कहना है, क‍ि देश में कृष‍ि के राष्ट्रीय प्रोग्राम अपनी बेहद अच्छी भूमिका निभा रहे हैं। फाउंडेशन से जुड़कर कार्य करने एवं सहायता लेने हेतु योजना निर्मित कर दी जाएगी। जलवायु परिवर्तन, बायोफोर्टिफिकेशन से लेकर फाउंडेशन सहयोग व मदद करेगा तब और बेहतर होगा। आईएआरआई को जीनोम एडिटिंग की भाँति नवीन विज्ञान के इलाकों में जीनोम चयन एवं मानव संसाधन विकास का इस्तेमाल करके पौधों के प्रजनन के डिजिटलीकरण पर परियोजनाओं हेतु धन उपलब्ध कराया जाएगा।
मोटे अनाज (मिलेट) की फसलों का महत्व, भविष्य और उपयोग के बारे में विस्तृत जानकारी

मोटे अनाज (मिलेट) की फसलों का महत्व, भविष्य और उपयोग के बारे में विस्तृत जानकारी

भारत के किसान भाइयों के लिए मिलेट की फसलें आने वाले समय में अच्छी उपज पाने हेतु अच्छा विकल्प साबित हो सकती हैं। आगे इस लेख में हम आपको मिलेट्स की फसलों के बारे में अच्छी तरह जानकारी देने वाले हैं। मिलेट फसलें यानी कि बाजरा वर्गीय फसलें जिनको अधिकांश किसान मिलेट अनाज वाली फसलों के रूप में जानते हैं। मिलेट अनाज वाली फसलों का अर्थ है, कि इन फसलों को पैदा करने एवं उत्पादन लेने के लिए हम सब किसान भाइयों को काफी कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता। समस्त मिलेट फसलों का उत्पादन बड़ी ही आसानी से लिया जा सकता है। जैसे कि हम सब किसान जानते हैं, कि सभी मिलेट फसलों को उपजाऊ भूमि अथवा बंजर भूमि में भी पैदा कर आसान ढ़ंग से पैदावार ली जा सकती है। मिलेट फसलों की पैदावार के लिए पानी की जरुरत होती है। उर्वरक का इस्तेमाल मिलेट फसलों में ना के समान होता है, जिससे किसान भाइयों को ज्यादा खर्च से सहूलियत मिलती है। जैसा कि हम सब जानते हैं, कि हरित क्रांति से पूर्व हमारे भारत में उत्पादित होने वाले खाद्यान्न में मिलेट फसलों की प्रमुख भूमिका थी। लेकिन, हरित क्रांति के पश्चात इनकी जगह धीरे-धीरे गेहूं और धान ने लेली और मिलेट फसलें जो कि हमारी प्रमुख खाद्यान्न फसल हुआ करती थीं, वह हमारी भोजन की थाली से दूर हो चुकी हैं।

भारत मिलेट यानी मोटे अनाज की फसलों की पैदावार में विश्व में अव्वल स्थान पर है

हमारा भारत देश आज भी मिलेट फसलों की पैदावार के मामले में विश्व में सबसे आगे है। इसके अंतर्गत मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, झारखंड, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किसान भाई बड़े पैमाने पर मोटे अनाज यानी मिलेट की खेती करते हैं। बतादें, कि असम और बिहार में सर्वाधिक मोटे अनाज की खपत है। दानों के आकार के मुताबिक, मिलेट फसलों को मुख्यतः दो हिस्सों में विभाजित किया गया है। प्रथम वर्गीकरण में मुख्य मोटे अनाज जैसे बाजरा और ज्वार आते हैं। तो उधर दूसरे वर्गीकरण में छोटे दाने वाले मिलेट अनाज जैसे रागी, सावा, कोदो, चीना, कुटुकी और कुकुम शम्मिलित हैं। इन छोटे दाने वाले, मिलेट अनाजों को आमतौर पर कदन्न अनाज भी कहा जाता है।

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वर्ष 2023 को "अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष" के रूप में मनाया जा रहा है

जैसा कि हम सब जानते है, कि वर्ष 2023 को “अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष” के रूप में मनाया जा रहा है। भारत की ही पहल के अनुरूप पर यूएनओ ने वर्ष 2023 को मिलेट वर्ष के रूप में घोषित किया है। भारत सरकार ने मिलेट फसलों की खासियत और महत्ता को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2018 को “राष्ट्रीय मिलेट वर्ष” के रूप में मनाया है। भारत सरकार ने 16 नवम्बर को “राष्ट्रीय बाजरा दिवस” के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।

मिलेट फसलों को केंद्र एवं राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर से बढ़ावा देने की कोशिशें कर रही हैं

भारत सरकार द्वारा मिलेट फसलों की महत्ता को केंद्र में रखते हुए किसान भाइयों को मिलेट की खेती के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है। मिलेट फसलों के समुचित भाव के लिए सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा किया जा रहा है। जिससे कि कृषकों को इसका अच्छा फायदा मिल सके। भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के स्तर से मिलेट फसलों के क्षेत्रफल और उत्पादन में बढ़ोत्तरी हेतु विभिन्न सरकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं। जिससे किसान भाई बड़ी आसानी से पैदावार का फायदा उठा सकें। सरकारों द्वारा मिलेट फसलों के पोषण और शरीरिक लाभों को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण एवं शहरी लोगों के मध्य जागरूकता बढ़ाने की भी कोशिश की जा रही है। जलवायु परिवर्तन ने भी भारत में गेहूं और धान की पैदावार को बेहद दुष्प्रभावित किया है। इस वजह से सरकार द्वारा मोटे अनाज की ओर ध्यान केन्द्रित करवाने की कोशिशें की जा रही हैं।

मिलेट यानी मोटे अनाज की फसलों में पोषक तत्व प्रचूर मात्रा में विघमान रहते हैं

मिलेट फसलें पोषक तत्वों के लिहाज से पारंपरिक खाद्यान गेहूं और चावल से ज्यादा उन्नत हैं। मिलेट फसलों में पोषक तत्त्वों की भरपूर मात्रा होने की वजह इन्हें “पोषक अनाज” भी कहा जाता है। इनमें काफी बड़ी मात्रा में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन-E विघमान रहता है। कैल्शियम, पोटैशियम, आयरन कैल्शियम, मैग्नीशियम भी समुचित मात्रा में पाया जाता है। मिलेट फसलों के बीज में फैटो नुत्त्रिएन्ट पाया जाता है। जिसमें फीटल अम्ल होता है, जो कोलेस्ट्राल को कम रखने में सहायक साबित होता है। इन अनाजों का निमयित इस्तेमाल करने वालों में अल्सर, कोलेस्ट्राल, कब्ज, हृदय रोग और कर्क रोग जैसी रोगिक समस्याओं को कम पाया गया है।

मिलेट यानी मोटे अनाज की कुछ अहम फसलें

ज्वार की फसल

ज्वार की खेती भारत में प्राचीन काल से की जाती रही है। भारत में ज्वार की खेती मोटे दाने वाली अनाज फसल और हरे चारे दोनों के तौर पर की जाती है। ज्वार की खेती सामान्य वर्षा वाले इलाकों में बिना सिंचाई के हो रही है। इसके लिए उपजाऊ जलोड़ एवं चिकिनी मिट्टी काफी उपयुक्त रहती है। ज्वार की फसल भारत में अधिकांश खरीफ ऋतु में बोई जाती है। जिसकी प्रगति के लिए 25 डिग्री सेल्सियस से 30 डिग्री सेल्सियस तक तापमान ठीक होता है। ज्वार की फसल विशेष रूप से महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में की जाती है। ज्वार की फसल बुआई के उपरांत 90 से 120 दिन के समयांतराल में पककर कटाई हेतु तैयार हो जाती है। ज्वार की फसल से 10 से 20 क्विंटल दाने एवं 100 से 150 क्विंटल हरा चारा प्रति एकड़ की उपज है। ज्वार में पोटैशियम, फास्पोरस, आयरन, जिंक और सोडियम की भरपूर मात्रा पाई जाती है। ज्वार का इस्तेमाल विशेष रूप से उपमा, इडली, दलिया और डोसा आदि में किया जाता है।

बाजरा की फसल

बाजरा मोटे अनाज की प्रमुख एवं फायदेमंद फसल है। क्योंकि, यह विपरीत स्थितियों में एवं सीमित वर्षा वाले इलाकों में एवं बहुत कम उर्वरक की मात्रा के साथ बेहतरीन उत्पादन देती हैं जहां अन्य फसल नहीं रह सकती है। बाजरा मुख्य रूप से खरीफ की फसल है। बाजरा के लिए 20 से 28 डिग्री सेल्सियस तापमान अनुकूल रहता है। बाजरे की खेती के लिए जल निकास की बेहतर सुविधा होने चाहिए। साथ ही, काली दोमट एवं लाल मिट्टी उपयुक्त हैं। बाजरे की फसल से 30 से 35 क्विंटल दाना एवं 100 क्विंटल सूखा चारा प्रति हेक्टेयर की पैदावार मिलती है। बाजरे की खेती मुख्य रूप से गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में की जाती है। बाजरे में आमतौर पर जिंक, विटामिन-ई, कैल्शियम, मैग्नीशियम, कॉपर तथा विटामिन-बी काम्प्लेक्स की भरपूर मात्रा उपलब्ध है। बाजरा का उपयोग मुख्य रूप से भारत के अंदर बाजरा बेसन लड्डू और बाजरा हलवा के तौर पर किया जाता है।

रागी (मंडुआ) की फसल

विशेष रूप से रागी का प्राथमिक विकास अफ्रीका के एकोपिया इलाके में हुआ है। भारत में रागी की खेती तकरीबन 3000 साल से होती आ रही है। रागी को भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न मौसम में उत्पादित किया जाता है। वर्षा आधारित फसल स्वरुप जून में इसकी बुआई की जाती है। यह सामान्यतः आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, तमिलनाडू और कर्नाटक आदि में उत्पादित होने वाली फसल है। रागी में विशेष रूप से प्रोटीन और कैल्शियम ज्यादा मात्रा में होता है। यह चावल एवं गेहूं से 10 गुना ज्यादा कैल्शियम व लौह का अच्छा माध्यम है। इसलिए बच्चों के लिए यह प्रमुख खाद्य फसल हैं। रागी द्वारा मुख्य तौर पर रागी चीका, रागी चकली और रागी बालूसाही आदि पकवान निर्मित किए जाते हैं।

कोदों की फसल

भारत के अंदर कोदों तकरीबन 3000 साल पहले से मौजूद था। भारत में कोदों को बाकी अनाजों की भांति ही उत्पादित किया जाता है। कवक संक्रमण के चलते कोदों वर्षा के बाद जहरीला हो जाता है। स्वस्थ अनाज सेहत के लिए फायदेमंद होता है। इसकी खेती अधिकांश पर्यावरण के आश्रित जनजातीय इलाकों में सीमित है। इस अनाज के अंतर्गत वसा, प्रोटीन एवं सर्वाधिक रेसा की मात्रा पाई जाती है। यह ग्लूटन एलजरी वाले लोगो के इस्तेमाल के लिए उपयुक्त है। इसका विशेष इस्तेमाल भारत में कोदो पुलाव एवं कोदो अंडे जैसे पकवान तैयार करने हेतु किया जाता है।

सांवा की फसल

जानकारी के लिए बतादें, कि लगभग 4000 वर्ष पूर्व से इसकी खेती जापान में की जाती है। इसकी खेती आमतौर पर सम शीतोष्ण इलाकों में की जाती है। भारत में सावा दाना और चारा दोनों की पैदावार के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह विशेष रूप से महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार और तमिलनाडू में उत्पादित किया जाता है। सांवा मुख्य फैटी एसिड, प्रोटीन, एमिलेज की भरपूर उपलब्ध को दर्शाता है। सांवा रक्त सर्करा और लिपिक स्तर को कम करने के लिए काफी प्रभावी है। आजकल मधुमेह के बढ़ते हुए दौर में सांवा मिलेट एक आदर्श आहार बनकर उभर सकता है। सांवा का इस्तेमाल मुख्य तौर पर संवरबड़ी, सांवापुलाव व सांवाकलाकंद के तौर पर किया जाता है।

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चीना की फसल

चीना मिलेट यानी मोटे अनाज की एक प्राचीन फसल है। यह संभवतः मध्य व पूर्वी एशिया में पाई जाती है, इसकी खेती यूरोप में नव पाषाण काल में की जाती थी। यह विशेषकर शीतोष्ण क्षेत्रों में उत्पादित की जाने वाली फसल है। भारत में यह दक्षिण में तमिलनाडु और उत्तर में हिमालय के चिटपुट इलाकों में उत्पादित की जाती है। यह अतिशीघ्र परिपक्व होकर करीब 60 से 65 दिनों में तैयार होने वाली फसल है। इसका उपभोग करने से इतनी ऊर्जा अर्जित होती है, कि व्यक्ति बिना थकावट महसूस किये सुबह से शाम तक कार्यरत रह सकते हैं। जो कि चावल और गेहूं से सुगम नहीं है। इसमें प्रोटीन, रेशा, खनिज जैसे कैल्शियम बेहद मात्रा में पाए जाते हैं। यह शारीरिक लाभ के गुणों से संपन्न है। इसका इस्तेमाल विशेष रूप से चीना खाजा, चीना रवा एडल, चीना खीर आदि में किया जाता है।
किसान भाइयों की आमदनी में निरंतर गिरावट की वजह क्या है

किसान भाइयों की आमदनी में निरंतर गिरावट की वजह क्या है

किसान भाइयों की लगातार आमदनी में हो रही कमी की कई वजह हैं। बतादें, कि किसान भाइयों को जलवायु में हो रहे निरंतर बदलाव की वजह से विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। दरअसल, एक सर्वे में भी जलवायु परिवर्तन को ही आय में गिरावट का मुख्य कारक बताया गया है। किसानों की आमदनी में लगातार कमी होती जा रही है। एक सर्वे ने खुलासा किया है, कि धरती पर निरंतर हो रहे जलवायु में बदलाव की वजह से किसानों पर भी प्रभाव पड़ रहा है। सर्वे के मुताबिक इस कारण विगत दो सालों में किसानों की आमदनी में पिछले दो सालों में औसत 15.7% की गिरावट आई है। साथ ही, इस दौरान 6 में से एक किसान को 25 प्रतिशत तक की हानि हुई है।

ज्यादातर किसान भविष्य में खेती को लेकर चिंतित

सर्वे में 71 प्रतिशत किसानों ने कहा है, कि जलवायु परिवर्तन की वजह उनकी खेती पर अब तक व्यापक दुष्प्रभाव पड़ चुका है। अधिकांश किसान भविष्य में खेती पर दुष्प्रभाव पड़ने को लेकर चिंतित हैं। 73 फीसदी किसानों का कहना हैं, कि
कीटनाशकों व फसलों के रोगों के कारण अधिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है। 'फार्मर वॉइस' सर्वे ने दुनिया भर के किसानों को जलवायु परिवर्तन से निपटने और भविष्य की तैयारियों के लिए सामने आने वाली चुनौतियों को प्रदर्शित किया है।

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भारत और केन्या के किसान चिंतित

लाइफ साइंस कंपनी बेयर ने विश्व भर में 800 किसानों से 'फार्मर वॉइस' सर्वे किया। इनमें जर्मनी, भारत, केन्या, यूक्रेन, यूएस, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील और चीन के छोटे और बड़े किसानों की तकरीबन समान संख्या थी। किसानों का मानना है, कि जलवायु परिवर्तन की वजह से खेती में उत्पन्न होने वाली चुनौती आगे भी बनी रहेंगी। विश्व स्तर पर तीन चौथाई किसानों ने बताया कि जलवायु परिवर्तन से उनकी खेती पर काफी दुष्प्रभाव पड़ेगा। भारत और केन्या के किसान इससे ज्यादा चिंतित थे।

किसानों की समस्याओं को स्पष्ट दिखाना आवश्यक

बेयर एजी के बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट के सदस्य और क्रॉप साइंस डिवीजन के प्रेसिडेंट रोड्रिगो सैंटोस ने कहा है, कि किसानों को जलवायु परिवर्तन की वजह से खेती पर दुष्प्रभाव का सामना करना पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त वह गंभीर चुनौती से निपटने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। इसलिए उनकी आवाज को सामने लाना अत्यंत आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन की वजह से विश्व खाद्य सुरक्षा पर आने वाले संकट को इस सर्वे ने स्पष्ट तौर पर दिखाया है। बतादें, कि बढ़ती वैश्विक जनसँख्या को देखते हुए, सर्वे से मिले नतीजे कैपिटलिस्टों को कृषि का रीजेनरेटिव बनाने में सहायता करेंगे।
जानिए बांस को किसानों का एटीएम क्यों कहा जाता है ?

जानिए बांस को किसानों का एटीएम क्यों कहा जाता है ?

बांस ने सिद्ध किया है, कि यह किसी भी हालत में अपना विकास करने में सक्षम है। क्योंकि यह अपनी जलवायु विविधता के मुताबिक परिवर्तन लाने की क्षमता की  वजह संजीवनी पौधा है। बतादें, कि चाहे बाढ़ हो अथवा सुखाड़, रेगिस्तान अथवा पहाड़ी इलाका हो, बांस बड़ी सहजता से उग जाता है। यह उपजाऊ अथवा बंजर भूमि में भी सहजता से उग सकता है। बांस किसानों के घर के आंगन से लेकर लड़ाई के मैदान में दुश्मनों के विरुद्ध लठ बजाने जैसे बहुतसे से कामों में सहारा देने वाला एक टिकाऊ बहुमुखी प्राकृतिक पौधा है। यह जीवन में भी शादी के मंडप से मृत्यु की शैय्या तक साथ देने की वजह से काफी उपयोगी होता है। बांस की मांग दिन-प्रतिदिन निरंतर बढ़ती जा रही है। इसलिए, इसे 'ग्रीन गोल्ड' कहा जाता है। इसको किसानों के लिए एक वास्तविक एटीएम के तौर पर जाना जाता है।

जानिए हरा सोना यानी कि बांस की उपयोगिता के बारे में 

जैसा कि हम सब जानते हैं, कि बांस एक बहुउपयोगी पौधा है। इस वजह से ही इसे ग्रीन गोल्ड कहा जाता है। बांस का इस्तेमाल भवन निर्माण से लेकर खानपान एवं कुटीर उद्योग में बहुतायत से किया जाता है। अगरबत्ती उद्योग, पैकिंग उद्योग, कागज उद्योग एवं बिजली उत्पन्न करने आदि में भी उपयोग किया जाता है। सामान्य तौर पर शहरों-क़स्बों अथवा गांवों में सीमेंटेड घर बनाते वक्त, इसके इस्तेमाल पर आपकी नजर पड़ी होगी। परंतु, सजावटी, रसोई और घरेलू वस्तु बनाने में भी ये बेहद काम आता है। इसका उपयोग वाद्य-यंत्र एवं आयुर्वेदिक दवा के तौर पर होता है। इससे शानदार गुणवत्ता की चेचरी एवं मैट तैयार किए जाते जाते हैं। बतादें कि प्राकृतिक आपदाओं जैसे कि भूकंप, तूफान और बाढ़ वाले क्षेत्रों में बांस से निर्मित घर ज्यादा सुरक्षित माने जाते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं, मृदा-क्षरण को रोकने में भी, बांस की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बतादें, कि बाढ़ वाले क्षेत्रों में जहां अन्य फसलों को हानि होती है, वहां बांस सुरक्षित रहता है। 

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बांस को किसानों का एटीएम कहा जाता है 

बांस को किसानों का ATM कहा जाता है। इसका इस्तेमाल कई सारी चीजों में होने की वजह से बांस को बेचने में कोई दिक्कत नहीं रहती है। खरीदार अथवा  व्यापारी स्वयं, खेतों से बांस काटकर ले जाते हैं। ना बाजार का कोई झंझट, ना दाम की कोई चिकचिक। इसके साथ ही अन्य दूसरी फसलों में जहां हर समय नजर रखनी पड़ती है। उसमें मानव-श्रम काफी अधिक लगता है। इसके साथ ही बांस का बगीचा, एक बार लगा देने पर इसमें अधिक मानव-श्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसके साथ ही 5 वर्ष उपरांत से लेकर, 30 साल तक इससे नियमित तौर पर आमदनी होती रहती है। बतादें, कि अपने इन्हीं खास गुणों की वजह से बांस को किसानों का ATM कहा जाता है। 

बांस की शानदार किस्में इस प्रकार हैं  

राष्ट्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान केंद्र झांसी के मुताबिक भारत में सामान्यतः बांस की 23 वंश की 58 किस्में पाई जाती हैं। यह प्रजातियां पूर्वी और पश्चिमी इलाकों में हैं। भारत में सेंट एक्टस वंश 45 प्रतिशत, बॉम्बुसा बॉम्बे;13 प्रतिशत एवं डेंड्रोकैलामस मिल्टनी 7 फीसद पाई जाती है। बांस के बीज चावल की भांति होते हैं। बांस की टिश्यू कल्चर के माध्यम से तैयार पौध से रोपाई की जाती है।

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बांस की खेती से कम लागत में लाखों का मुनाफा 

प्रत्येक चार वर्ष उपरांत बांस के बगीचे तैयार हो जाते हैं। तब आप बांस की कटाई कर सकते हैं। चार वर्ष पर एक एकड़ से 15 से 20 लाख आमदनी ले सकते हैं अथवा मेड़ पर लगाकर प्रति वर्ष 20 हजार तक की आमदनी ले सकते हैं। बांस 30 वर्ष के जीवनकाल तक चलता रहता है। इस प्रकार बांस की बागवानी लगाकर आप बाढ़ वाले क्षेत्रों में भी अच्छी एवं निश्चित आमदनी कमा सकते हैं। ये हर समय बिक्री को तैयार रहने वाला पौधा है, जिस वजह से इसे ग्रीन गोल्ड भी कहा जाता है। भारत में इसकी खेती को प्रोत्साहन देने के लिए नेशनल बैंबू मिशन चलाया जा रहा है। वर्तमान में नेशनल बैंबू मिशन के अंतर्गत सरकार अनुदान भी प्रदान कर रही है। आप इसके सहभागी बन कर फायदा प्राप्त कर सकते हैं।  
जलवायु परिवर्तन किस प्रकार से कृषि को प्रभावित करता है ?

जलवायु परिवर्तन किस प्रकार से कृषि को प्रभावित करता है ?

आजकल जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक मुद्दा बनकर सामने आ रहा है। जलवायु परिवर्तन किसी देश विशेष या राष्ट्र से संबंधित अवधारणा नहीं है। जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक अवधारणा है, जो समस्त पृथ्वी के लिए चिंता का विषय बनती जा रही है। 

जलवायु परिवर्तन से भारत समेत संपूर्ण विश्व में बाढ़, सूखा, कृषि संकट एवं खाद्य सुरक्षा, बीमारियां, प्रवासन आदि का खतरा बढ़ा है। परंतु, भारत का एक बड़ा तबका (लगभग 60 प्रतिशत आबादी) आज भी कृषि पर निर्भर है, और इसके प्रभाव के प्रति सहज है। इसलिए कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित दस शीर्ष देशों में शम्मिलित है। जलवायु की बदलती परिस्थितियां कृषि को सर्वाधिक प्रभावित कर रहीं हैं। क्योंकि, दीर्घ काल में ये मौसमी कारक जैसे वर्षा, तापमान, आर्द्रता आदि पर निर्भर करती है। 

अतः इस लेख में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि जलवायु परिवर्तन कृषि को कैसे प्रभावित करता है।

जलवायु परिवर्तन कृषि को निम्नलिखित तरह से प्रभावित कर सकता है

कृषि उपज में गिरावट 

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से विश्व कृषि इस सदी में गंभीर गिरावट का सामना कर रही है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) के मुताबिक, वैश्विक कृषि पर जलवायु परिवर्तन का कुल प्रभाव नकारात्मक होगा। 

हालांकि कुछ फसलें इससे काफी लाभान्वित होंगी किन्तु फसल उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन का कुल प्रभाव सकारात्मक से ज्यादा नकारात्मक होगा।

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भारत में 2010-2039 के बीच जलवायु परिवर्तन के कारण लगभग 4.5 प्रतिशत से 9 प्रतिशत के बीच उत्पादन के गिरने की आशंका है। एक शोध के मुताबिक, अगर वातावरण का औसत तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है, तो इससे गेहूं का उत्पादन 17 प्रतिशत तक कम हो सकता है। 

इसी प्रकार 2 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से धान का उत्पादन भी 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम होने की संभावना है।

कृषि के अनुकूल परिस्थितियों में कमी

जलवायु परिवर्तन के चलते तापमान के उच्च अक्षांश (high latitude) की ओर खिसकने से निम्न अक्षांश (low latitude) प्रदेशों में कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। 

भारत के जल स्रोत तथा भंडार बड़ी तीव्रता से सिकुड़ रहे हैं, जिससे किसानों को परंपरागत सिंचाई के तौर तरीका छोडकर पानी की खपत कम करने वाले आधुनिक तरीके एवं फसलों का चयन करना होगा। 

ग्लेशियर के पिघलने से विभिन्न बड़ी नदियों के जल संग्रहण क्षेत्र में दीर्घावधिक तौर पर कमी आ सकती है, जिससे कृषि एवं सिंचाई में जलाभाव से गुजरना पड़ सकता है। 

एक रिपोर्ट के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन की वजह से प्रदूषण, भू-क्षरण और सूखा पड़ने से पृथ्वी के तीन चौथाई भूमि भाग की गुणवत्ता कम हो गई है।

जलवायु परिवर्तन से औसत तापमान में वृद्धि

जलवायु परिवर्तन की वजह से पिछले कई दशकों में तापमान में इजाफा हुआ है। औद्योगीकरण की शुरुआत से अब तक पृथ्वी के तापमान में तकरीबन 0.7 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो चुकी है। 

कुछ ऐसे पौधे होते हैं, जिन्हें एक विशेष तापमान की जरूरत होती है। वायुमंडल का तापमान बढ़ने पर उनकी पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जैसे जौ, आलू, गेंहू और सरसो आदि इन फसलों को कम तापमान की जरूरत होती है। 

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वहीं, तापमान में इजाफा होना इनके लिए काफी हानिकारक होता है। इसी तरह ज्यादा तापमान बढ़ने से मक्का, ज्वार और धान इत्यादि फसलों का क्षरण हो सकता है। 

क्योंकि, ज्यादा तापमान की  वजह से इन फसलों में दाना नहीं बनता या कम बनता है। इस तरह तापमान की वृद्धि इन फसलों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।

वर्षा के काल चक्र में परिवर्तन 

भारत का दो तिहाई कृषि क्षेत्र बरसात पर आश्रित है और कृषि की उत्पादकता वर्षा एवं इसकी मात्रा पर निर्भर होती है। वर्षा की मात्रा व तरीकों में परिवर्तन से मृदा क्षरण और मृदा की नमी पर असर पड़ता है। 

जलवायु की वजह तापमान में वृद्धि से वर्षा में गिरावट होती है, जिससे मिट्टी में नमी खत्म होती जाती है। इसके अलावा तापमान में कमी और वृद्धि होने का असर वर्षा पर पड़ता है, जिसके कारण भूमि में अपक्षय और सूखे की संभावनाएँ अधिक हो जाती हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव कुछ वर्षों से गहन रूप से प्रभावित कर रहे हैं। मध्य भारत 2050 तक शीत वर्षा में 10 से 20 प्रतिशत तक कमी का अनुभव करेगा।

पश्चिमी अर्धमरुस्थलीय क्षेत्र द्वारा सामान्य वर्षा की अपेक्षा ज्यादा वर्षा प्राप्त करने की संभावना है। इसी प्रकार मध्य पहाड़ी क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि एवं वर्षा में कमी से चाय की फसल में कमी हो सकती है।

कार्बन डाइऑक्साइड में बढ़ोतरी 

कार्बन डाइऑक्साइड गैस वैश्विक तापमान में करीब 60 प्रतिशत की हिस्सेदारी करती है। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में बढ़ोतरी से व तापमान में वृद्धि से पेड़-पौधों तथा कृषि पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 

पिछले 30-50 वर्षों के दौरान कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा करीब 450 पीपीएम (प्वाइंट्स पर मिलियन) तक पहुँच गयी है। हालांकि, कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि कुछ फसलों जैसे गेहूं तथा चावल के लिए लाभदायक है। 

क्योंकि ये प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को तीव्र करती है और वाष्पीकरण के द्वारा होने वाली हानियों को कम करती है। परंतु, इसके बावजूद भी कुछ मुख्य खाद्यान्न फसलें जैसे गेंहू की पैदावार में काफी गिरावट आई है, जिसका कारण कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि यानी तापमान में वृद्धि ही है।

कीट एवं रोगों का संकट बढ़ना 

जलवायु परिवर्तन की वजह से कीटों और रोगाणुओं में वृद्धि होती है। गर्म जलवायु में कीट-पतंगों की प्रजनन क्षमता काफी बढ़ जाती है, जिससे कीटों की तादात काफी बढ़ जाती है और इसका कृषि पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ता है। 

साथ ही, कीटों और रोगाणुओं को रोकने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल भी कहीं ना कहीं कृषि फसल के लिए हानिकारक ही होता है।

हालांकि, कुछ ज्यादा सूखा-सहिष्णु फसलों को जलवायु परिवर्तन से लाभ हुआ है। ज्वार की उपज, जिसका खाद्यान्न के रूप में उपयोग दुनिया में विकासशील भारत के अधिकांश लोग करते हैं। 

1970 के दशक के पश्चात पश्चिमी, दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में तकरीबन 0.9% फीसद की वृद्धि हुई है। उप सहारा अफ्रीका में 0.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। 

वहीं, यदि कुछ फसलों को छोड़ दिया जाए तो, कुल फसल उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव नकारात्मक ही पड़ता है।

इस साल रिकॉर्ड तोड़ गर्मी की आशंका - भारतीय मौसम विज्ञान विभाग

इस साल रिकॉर्ड तोड़ गर्मी की आशंका - भारतीय मौसम विज्ञान विभाग

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) द्वारा की गई घोषणा के मुताबिक, भारत में इस वर्ष गर्मी के मौसम (अप्रैल से जून) में औसत से ज्यादा गर्मी के दिन देखने को मिल जाएंगे।  

भारत के ज्यादातर इलाकों में सामान्य से भी ज्यादा तापमान दर्ज किए जाने की संभावना है। दरअसल, अनुमान यह है, कि गर्मी का सबसे ज्यादा प्रभाव दक्षिणी इलाके, मध्य भारत, पूर्वी भारत और उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों पर पड़ेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत के मैदानी क्षेत्रों में इस बार हर साल से अधिक तपिश देखने को मिलेगी। 

यह ऐलान तब किया गया जब भारत पहले से ही अपनी बिजली की मांग को पूर्ण करने के लिए संघर्ष कर रहा है, जो गर्मी के मौसम में बेहद बढ़ जाती है। 

एक विश्लेषण में कहा गया कि 31 मार्च, 2024 को समाप्त होने वाले साल में भारत का जलविद्युत उत्पादन कम से कम 38 सालों में सबसे तेज गति से गिरा है। 

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आगामी महीनों में भी जलविद्युत उत्पादन शायद सबसे कम रहेगा, जिससे कोयले पर निर्भरता काफी बढ़ जाएगी। साथ ही, इससे वायु प्रदूषण अगर बढेगा तो ये गर्मी में और अधिक योगदान प्रदान करेगा।

भारतीय मौसम विभाग ने क्या कहा है ?

आईएमडी के पूर्वानुमान में कहा गया है, कि पूर्व और उत्तर-पूर्व के कुछ क्षेत्रों और उत्तर-पश्चिम के कुछ इलाकों को छोड़कर भारत के अधिकांश हिस्सों में गर्मी  सामान्य से ज्यादा ही रहेगी। यानी कि अधिकतम और न्यूनतम तापमान सामान्य से भी ऊपर रहेगा। 

भारत में इस बार अधिक गर्मी पड़ने की आशंका है ?

अल नीनो भारत में कम वर्षा और अधिक गर्मी का कारण बनती है। भूमध्यरेखीय प्रशांत क्षेत्र में मध्यम अल नीनो स्थितियां अभी मौजूद हैं, जिसकी वजह से समुद्र की सतह के तापमान में लगातार बढोतरी हो रही है। 

समुद्र की सतह पर गर्मी समुद्र के ऊपर वायु प्रवाह को प्रभावित करती है। चूंकि, प्रशांत महासागर धरती के करीब एक तिहाई भाग को कवर करता है। इसलिए इसके तापमान में परिवर्तन और उसके बाद हवा के पैटर्न में परिवर्तन विश्वभर में मौसम को बाधित करता रहा है। 

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यूएस नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन का कहना है, कि इस वर्ष की जनवरी 175 सालों में सबसे गर्म जनवरी थी। हालांकि, अगले सीजन के दौरान अल नीनो के कमजोर होने और ‘तटस्थ’ होने की संभावना है। 

कुछ मॉडलों ने मानसून के दौरान अल नीनो की स्थिति विकसित होने की भी संभावना जताई है, जिससे पूरे दक्षिण एशिया में विशेष रूप से भारत के उत्तर-पश्चिम और बांग्लादेश में तेजी से वर्षा हो सकती है।

भारत में अब भर जाएंगें अन्न भंडार, जाने सरकार किस योजना पर कर रही है काम

भारत में अब भर जाएंगें अन्न भंडार, जाने सरकार किस योजना पर कर रही है काम

भारत में काफी ज्यादा लोग कृषि में लगे हुए हैं, देश का काफी ज्यादा हिस्सा खेती के लिए इस्तेमाल किया जाता है। भारत में काफी जमीन उपजाऊ है, लेकिन जहां पर बंजर जमीन है वहां पर भी सरकार द्वारा अनेक तरह की योजनाएं चलाई जाती हैं ताकि वहां पर खेती की जा सके। किसान भी यहां पर खेती करने में कोई कसर नहीं रहने देते हैं और उत्पादन बढ़ाने के लिए रात दिन प्रयासरत रहते हैं। लेकिन फिर भी बहुत बार ऐसा होता है, कि किसानों को अपनी की गई मेहनत का फल पूरी तरह से नहीं मिल पाता है और किसी न किसी कारण से फसल बर्बाद हो जाती है या फिर उम्मीद के अनुसार उत्पादन नहीं हो पाता है। इस चीज के कई कारण है, लेकिन जलवायु परिवर्तन उनमें से एक है। इस तरह की समस्याओं से निपटने के लिए ही भारत सरकार ने एक योजना बनाने के बारे में सोचा है। माना जा रहा है, कि इस योजना के बाद भारत में अन्न भंडार हमेशा के लिए भरे रहेंगे और किसी भी तरह की दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ेगा।

घरेलू खाद्य संकट के निपटारे की ओर बढ़ेगा कदम

आजकल आए दिन कहीं ना कहीं कोई समस्या चलती रहती है, ऐसी ही कुछ चीजों से खाद्य संकट पैदा होना जाहिर सी बात है। जैसे- रूस-यूक्रेन युद्ध, कोरोना महामारी। इसके अलावा आजकल जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक घटनाओं से भी फसलों को नुकसान हो रहा है, जिसका असर किसी भी देश के अन्य भंडार पर सीधे तौर से पड़ता है। ऐसे में भारत ने खाद्य संकट को खत्म करने के लिए कुछ कदम उठाने का फैसला किया है। भारत सरकार अब दुनिया के 'सबसे बड़ा अनाज भंडारण योजना' के विकास-विस्तार पर काम कर रही है।


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इस स्कीम के तहत जल्द ही कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के साथ-साथ उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय और खाद्य प्रसंस्करण समेत दूसरे मंत्रालयों के तहत आने वाली कुछ योजनाओं को भी जोड़ दिया जाएगा। ये इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि कोरोना महामारी से लेकर यूक्रेन-रूस युद्ध और दूसरी वैश्विक घटनाओं का सीधा असर खाद्य आपूर्ति पर हो रहा है। खाने पीने की सभी चीजों की कीमत बहुत ज्यादा बढ़ गई है, जिससे लोगों में और सरकार में घरेलू खाद्य सुरक्षा की चिंता भी बढ़ रही है।

किया जाएगा साइलो भंडारण तरीके का इस्तेमाल

साइलो भंडारण तकनीक अनाज भंडारण की एक आधुनिक तकनीक है, जो पुराने जमाने में किए गए भंडारण के तरीके से कहीं ज्यादा सुरक्षित मानी गई है। साथ ही, इसमें पहले के मुकाबले ज्यादा अनाज का भंडारण भी किया जा सकता है। इसमें 12,500 टन भंडारण क्षमता के स्टील के टैंक बने होते हैं। पहले गोदाम आदि में बोरियों में भरकर अनाज को रखा जाता था, जिसमें एक के ऊपर दूसरी बोरी रखी जाती थी। बारिश या फिर किसी भी तरह की आपदा के चलते ऐसे में फसलों के बर्बाद होने की संभावना ज्यादा रहती है। लेकिन साइलो भंडारण में आधुनिक तकनीकों से लैस टैंकों में अनाज की सुरक्षित रखा जाता है, जिसमें नुकसान की कोई संभावना नहीं होती।


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अभी कुछ दिन पहले ही बाली में आयोजित जी20 शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया और वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, कि मौजूदा उर्वरक की कमी खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकती है। ऐसे में आधुनिक अनाज भंडारण की योजना पर काम करना भविष्य में फायदेमंद साबित होगा।